- 1 Post
- 2 Comments
मशहूर लॉर्ड एक्टन – “इतिहास का मजिस्ट्रेट” – ने कहा है, ” शक्ति भ्रष्ट करती है और पूर्ण शक्ति पूरी तरह से भ्रष्ट करती है। महान पुरुष लगभग हमेशा बुरे होते हैं, तब भी जब वे अपने प्रभाव का प्रयोग कर रहे होते हैं अधिकार का नहीं ” यह उद्धरण भ्रष्टाचार की अपरिहार्यता इंगित करता है। यह अपरिहार्य भ्रष्टाचार अलग अलग देशों में अलग रूपों और स्तरों में दिखाई देता है| इतना ही नहीं एक देश के अलग अलग संस्थानों में और संस्थानों के विभिन्न व्यक्तियों में इसकी भाषा और परिभाषा अलग होती है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी भ्रष्टाचार सूचकांक 2016 में 176 देशों के बीच भारत का 79 वां रैंक भ्रष्टाचार की समस्या की गंभीरता को दर्शाता है। सरकार हो या सरकारी या निजी संगठन, भ्रष्टाचार हर जगह है| सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार इतना स्पष्ट है कि या तो हम अपनी आँखें मूँद लेते हैं या हम हम खुद भ्रष्टाचार का हिस्सा बन जाते हैं। भ्रष्टाचार का अगर मूल तलाशा जाए तो सरकार में मौजूद भ्रष्टाचार राजनीतिक अभिजात वर्ग के उभरने से उत्पन्न होता है जो राष्ट्र-उन्मुख कार्यक्रमों और नीतियों के बजाय स्वार्थपरक कार्यक्रमों और नीतियों में विश्वास रखते हैं। इसके अलावा, व्यापक निरक्षरता और गरीबी भी भ्रष्टाचार का कारण बनता है। साथ ही जटिल कानून और प्रक्रियाएं आम लोगों को प्रणाली से अलग करती हैं और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं।
और अगर हम समाधान की तलाश करना चाहते हैं तो हमे केवल उन देशों के संस्थानो से अपनी तुलना करनी चाहिए जो भ्रष्टाचार सूचकांक में हमसे बेहतर रैंक पर हैं, क्योंकि वहाँ प्रणाली अपेक्षाकृत अधिक पारदर्शी और स्वतंत्र है। इन देशों में प्रेस को ज्यादा स्वतंत्रता है, सार्वजनिक व्यय के बारे में जानकारी सामान्य रूप से उपलब्ध है, सार्वजनिक अधिकारियों के लिए अखंडता के मजबूत मानक मौजूद हैं, और यहाँ की न्यायिक प्रणालियां स्वतंत्र है। हमारे संस्थानों- सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक – के संचालन में इस तरह की पारदर्शिता यह सुनिश्चित अवश्य करेगी कि भ्रष्टाचार का स्तर घटे| शायद संस्थानों की पारदर्शिता पूरी तरह से भ्रष्टाचार को इसलिए समाप्त नहीं कर सकती क्योंकि समस्या मुख्य रूप से हम में है संस्था में नहीं।
यदि करीब से देखें तो हमारा नैतिक दिवालियापन भ्रष्टाचार का मूल कारण हैं और यही दिवालियापन संस्थानों में भ्रष्टाचार पैदा करता है| नैतिक मूल्य, जो व्यक्तिपरक है तो सामाजिक भी , ऐसे मापदंड हैं जो गलत से सही का भेद कराते हैं| और इन्हीं नैतिक मूल्य के दृष्टिकोण से भ्रष्टाचार को परिभाषित किया जा सकता है। कल के क्रूर समाज की नैतिकता आज के सभ्य समाज से काफी भिन्न थी। आज के सभ्य समाजों में भी यह भौगोलिक क्षेत्रों के आधार पर अलग है। यह समय के साथ भी बदलता है। यहां तक कि एक समाज में यह एक समुदाय से दूसरे तक भिन्न हो जाता है। इसलिए एक मानव का भ्रष्ट होना इस पर निर्भर करता है कि वह अपने समाज के नैतिक संहिता के प्रति कितना सत्यनिष्ठ है| सत्यनिष्ठा की कमी भ्रष्टाचार है और मानव की सत्यनिष्ठा भ्रष्टाचार के खिलाफ उसकी लड़ाई| एक लेखक ने लिखा “प्रकृति के कानूनों में कोई न्याय नहीं है, गति के समीकरणों में निष्पक्षता के लिए कोई भी शब्द नहीं है। ब्रह्मांड न बुरा है, न ही अच्छा है, यह बस परवाह नहीं करता है। तारों को परवाह नहीं है, या सूर्य, या पृथ्वी को परवाह नहीं है! हमें परवाह है! दुनिया में अगर प्रकाश है तो वह हम हैं!” और मैं जोड़ता हूं कि दुनिया में अगर भ्रष्टाचार रूपी अंधेरा है तो वह हमारी वजह से है|
इसलिए भ्रष्टाचार से निवारण व्यक्तिगत स्तर पर नैतिकता, सेवा और ईमानदारी के पुराने आदर्शों को पुनर्जीवित करने में है और संस्थानो में उन प्रणालियों को अपनाने में है जो पारदर्शी हैं। “मुझे विश्वास नहीं है कि भ्रष्टाचार एक एकल नेता, एक राजनीतिक दल या मीडिया द्वारा समाप्त किया जा सकता है। केवल युवाओं के आंदोलन, जो अपने घरों से शुरू होता है, से भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है” -कलाम ने कहा।
Read Comments